घरोंदा

घरोंदा

A Poem by Prashant Sinha Writings
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This is a poem for Ambition to be settled in older age

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बहूत आरज़ू थी अपना मकाम बनाने की 

मकाम पे एक घरोंदा बनाने की 

ख्वाइशों की अ�™मिराह में इच्छा�"ं के दौ�™त रखता 

क�™्पना�"ं के चिड़िया को विचारों के दाने देता 


अपने मक़ाम को वक़्त पे मुक़म्म�™ करता 

मेरी कामयाबी वहां सजा के रखता 

�"र वहां पे जो �-म�™े होते 

�™ो�-ों के तारीफों के उसमे ग़ु�™ाब �™�-ाता


वहां तन्हाई भी एक महफ़ि�™ होती 

चुप्पी भी एक कहानी होती 

भू�™ अ�-र हो जाता किसी से 

उन सबकी सबको माफ़ी होती 


जीवन का सबको ख़ूबसूरत नज़रिया होता

भू�™ से भी कोई किसी का दि�™ न दुखता 

मज़बूरी भी हौस�™ा होती 

�"र वक़्त की कहीं कमी न होती 


सबके किया का कुछ सार होता

वहां हार में भी सबका जीत होता

मन खुद से सही राह पे होता 

ग़म खुद ही हंसी त�™ाश के �™ाता


यह सोच के जब मैंने घरोंदा बनाया था 

जैसे सोचा वैसा कुछ भी पूरा नहीं था 

तो जैसे तैसे समझौता कर के जो घरोंदा बनाया था 

यह वही घरोंदा है जो आप देख रहे हैं 

© 2016 Prashant Sinha Writings


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Added on October 14, 2016
Last Updated on October 14, 2016
Tags: Ambitions