कब तक?A Poem by Keertivardhan KukretiA poem about growing up mentally and emotionally and to motivate people to start working for their Future self.
अब कब तक
ज़िंद-ी के कुछ प™्™ों को जीने के ™िए पूरी ज़िंद-ी को दा"ं पर ™-ाएँ-े? आख़िर बचपन से हटकर इस दुनिया में कभी तो हम जाएँ-े। कई हाथ छोडिं-े "र कई हाथ बढ़ाएँ-े अतीत को भू™ कर आ-े बढ़ जाएँ-े, अभी तो इस दि™ के कई "र टूकड़े बिखरने हैं एक इंसान पर आख़िर कितने आँसूँ बहाएँ-े? अब कब तक ज़िंद-ी के कुछ प™्™ों को जीने के ™िए पूरी ज़िंद-ी को दा"ं पर ™-ाएँ-े? वो अतीत था उसे जाना ही था पर क™ को हम कितना बद™ पाएँ-े? आज को, अभी से हम अपने क™ जैसा बनाएँ-े! © 2019 Keertivardhan KukretiAuthor's Note
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StatsAuthorKeertivardhan KukretiIndiaAbout17|Indian by heart |Filmmaker 🎥|PHOTOGRAPHER📸|Asteroid Discoverer 2k14☄️|Astronomer💫|Poem❤️| Quotes| Believe me you'll love me😏|Snap: keerti4.. more..Writing
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